बेबसी
कल को देखा,
समझ ना पाया।
आने वाले कल को
समझना है,
इसलिये आज से लड़ता हूँ ;
अपने आप से लड़ता हूँ ।
पर ये
वक़्त्त कम्बख्त
साथ नही देता।
मै तो चलना चाहता हूँ ;
पर ये
हाथ नही देता।
5 मई 2007
समझ ना पाया।
आने वाले कल को
समझना है,
इसलिये आज से लड़ता हूँ ;
अपने आप से लड़ता हूँ ।
पर ये
वक़्त्त कम्बख्त
साथ नही देता।
मै तो चलना चाहता हूँ ;
पर ये
हाथ नही देता।
5 मई 2007
यतिश जी सचमुच कितनी बेबसी है कल को समझ नहि पाये ओर आज को समझना चाहते है मगर वक्त हाथ से निकला जा रहा है साथ हि नहि देता,..वैसे वक्त ने साथ कब किसी का दिया है
ऐक बात याद आई,..
वक्त पर न जा, वक्त एक जैसा है,..
कर मेहनत फ़िर देख वक्त अपने जैसा है,...
सुनीता(शानू)
Posted by सुनीता शानू | 10:51 PM
भाई वाह…यतीश भाई,
मजा आ गया यह पढ़कर…थोड़े शब्दों में ही बेबसी का मर्म सरलता से कह दिया…अत्यंत विचारणीय!!!
लिखते रहें!
Posted by Divine India | 11:42 PM
अति सुंदर । अनूठी रचना ।
Posted by Prabhakar Pandey | 9:07 AM
हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है यतीश जी। नए चिट्ठाकारों के स्वागत पृष्ठ पर अवश्य जाएं।
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Posted by ePandit | 11:24 PM
स्वागत-स्वागत……
आखिरकार आपने नारद मुनि का आशीर्वाद ले ही लिया।
शुभकामनाएं
Posted by Sanjeet Tripathi | 12:43 PM
समकालीन कविता का तेवर नज़र आता है इस कविता में । बधाई ।
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Posted by जयप्रकाश मानस | 11:29 PM