कल को देखा, समझ ना पाया। आने वाले कल को समझना है, इसलिये आज से लड़ता हूँ ; अपने आप से लड़ता हूँ । पर ये वक़्त्त कम्बख्त साथ नही देता। मै तो चलना चाहता हूँ ; पर ये हाथ नही देता।
यतिश जी सचमुच कितनी बेबसी है कल को समझ नहि पाये ओर आज को समझना चाहते है मगर वक्त हाथ से निकला जा रहा है साथ हि नहि देता,..वैसे वक्त ने साथ कब किसी का दिया है ऐक बात याद आई,..
वक्त पर न जा, वक्त एक जैसा है,.. कर मेहनत फ़िर देख वक्त अपने जैसा है,... सुनीता(शानू)
6 comments:
यतिश जी सचमुच कितनी बेबसी है कल को समझ नहि पाये ओर आज को समझना चाहते है मगर वक्त हाथ से निकला जा रहा है साथ हि नहि देता,..वैसे वक्त ने साथ कब किसी का दिया है
ऐक बात याद आई,..
वक्त पर न जा, वक्त एक जैसा है,..
कर मेहनत फ़िर देख वक्त अपने जैसा है,...
सुनीता(शानू)
भाई वाह…यतीश भाई,
मजा आ गया यह पढ़कर…थोड़े शब्दों में ही बेबसी का मर्म सरलता से कह दिया…अत्यंत विचारणीय!!!
लिखते रहें!
अति सुंदर । अनूठी रचना ।
हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है यतीश जी। नए चिट्ठाकारों के स्वागत पृष्ठ पर अवश्य जाएं।
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स्वागत-स्वागत……
आखिरकार आपने नारद मुनि का आशीर्वाद ले ही लिया।
शुभकामनाएं
समकालीन कविता का तेवर नज़र आता है इस कविता में । बधाई ।
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